झाला राजपूतों का इतिहास
Himmat Singh • 05 Nov 2025
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चेटक पग दीधी जठै, सिर दीधौ मकवांण।
(यानी जहां चेतक ने सिर दिया, वहां झाला मान ने प्राण दिए)
भारत के इतिहास में राजपूत वंश का एक महत्वपूर्ण स्थान रहा है, और इनमें से मकवाणा (झाला) राजपूत अपनी वीरता और शौर्य के लिए जाने जाते हैं। झाला चंद्रवंशी क्षत्रिय हैं। इस बात की पुष्टि विक्रमी संवत की 15वीं सदी में गंगाधर रचित ‘मंडलीक चरित्र' ग्रंथ से भी होती है जिसमें लिखा है, गोहिल सूर्यवंशी और झलक्य चंद्रवंशी है। अतः सिद्ध है कि मकवाना चंद्रवंशी थे।
झाला मुख्य रूप से गुजरात और राजस्थान में निवास करने वाले क्षत्रिय हैं। इनके इतिहास की जानकारी 12वीं शताब्दी से मिलती है, जब हरपालदेव जी ने जालौर पर अपना शासन स्थापित किया था। पाटड़ी को अपनी राजधानी बनाकर, उन्होंने एक विशाल साम्राज्य की नींव रखी।
झाला राजपूतों का इतिहास युद्धों और वीरता के कारनामों से भरा हुआ है। मुगलों से लेकर अन्य राजपूत राजाओं तक, उन्होंने सदैव अपनी मातृभूमि की रक्षा के लिए लड़ाइयां लड़ीं। रानी कफुलंदा जैसी वीरांगनाएं भी झाला इतिहास में अपना एक अलग स्थान रखती हैं। गुजरात का एक पूरा क्षेत्र, जिस पर कभी उनका शासन था और जिसका नाम उनके नाम पर रखा गया था, झालावाड़ के नाम से जाना जाता था। गुजरात में झाला द्वारा शासित कई रियासतें थी, जैसे कि 1920 के दशक में ध्रांगध्रा जोकि 13 तोपों की सलामी वाला राज्य था, इस पर झाला वंश का शासन था। वांकानेर राज्य, लिंबडी और वधावन राज्यों के साथ-साथ लखतर, सायला और चूड़ा झालाओं के अधिकार में थे।
झाला राजपूतों ने सदियों से राजस्थान और गुजरात के क्षेत्रों पर शासन किया और अपनी रणनीतिक कौशल से न केवल अपना साम्राज्य विस्तार किया बल्कि बाहरी आक्रमणों का भी डटकर मुकाबला किया। महाराणा प्रताप के अनन्य सहयोगी झाला मान की वीरता व देशभक्ति किसी से छुपी नहीं है। राव कर्णसिंह जी और रानी कफुलंदा जैसे शूरवीरों की वीरता गाथाएं आज भी इतिहास के पन्नों में अंकित हैं। उन्होंने कला, संस्कृति और स्थापत्य के क्षेत्र में भी महत्वपूर्ण योगदान दिया। राजा रामसिंह जी जैसे कुशल प्रशासकों ने कला और मंदिर निर्माण को बढ़ावा दिया। झाला वंश की शाखाएं उनकी विविधता और व्यापक प्रभाव को दर्शाती हैं। भले ही समय के साथ उनका शासन समाप्त हो गया, उनकी वीरता और सांस्कृतिक विरासत आज भी प्रेरणा का स्रोत है।
उत्पत्ति एवं विस्तार
झाला (मखवाना) वंश की उत्पत्ति :
ऐसा माना जाता है की ब्रह्माजी के चार पुत्र थे भृगु, अंगीरा, मरीचि, अत्री। भृगु ऋषि के पुत्र विधाता हुए, विधाता के पुत्र मृकुंड हुए और मृकुंड के पुत्र मार्कंडेय हुए। उस समय बद्रिनारायण के क्षेत्र में अनेक ऋषि के आश्रम हुवा करते थे। ऋषि के यज्ञ को भंग करने वाले राक्षसों का आतंक खूब बढ़ गया था, राक्षसों के संहार करने के लिए मार्कंडेय ऋषि ने अपने यज्ञ बल से एक वीर पुरुष उत्पन्न किया। उस वीर पुरुष का नाम कुंडमाल दिया। जो फिर मखवान शाखा के प्रवर्तक हुए। "मख" यानी यज्ञ का कुंड "मखवान" यानी यज्ञ से उत्पन हुवा। उस समय चंड और चंडाक्ष नाम के दो राक्षस को देवी वरदान प्राप्त थे की 'सिर्फ वो दोनों ही एक दूसरे को मार सकते थे'। कुंडमालजी ने भी भगवान शिवजी की तपस्या कर अनेक देवी शस्त्र प्राप्त किये और अनेक राक्षसों का वध किया। कुंडमाल जी ने उस देवी शास्त्र का प्रयोग चंड और चंडाक्ष के विरुद्ध किया जिस से एक मोहिनी उत्पन हुई और उस मोहिनी को पाने की लालच में दोनों राक्षसो के बीच लड़ाई हो गई और दोनों ने एक दुसरे को मार डाला। कुंडमालजी ने उस क्षेत्र में चमत्कारपुर नामक राज्य की स्थापना की और उनकी तीन पीढियो ने वहा शासन किया। फिर राजा कुंत ने हिमालय की तलहटी में कुंतलपुर नामक राज्य की स्थापना की।
मखवाना नामकरण
इस संबंध में कई मत प्रचलित हैं -
मार्कंडेय ऋषि ने अपने यज्ञ बल से एक वीर पुरुष उत्पन्न किया। उस वीर पुरुष का नाम कुंडमाल दिया। जो फिर मखवान शाखा के प्रवर्तक हुए। "मख" यानी यज्ञ का कुंड "मखवान" यानी यज्ञ से उत्पन हुवा।
कई विद्वानों का मत है कि सिंध क्षेत्र के मकरान स्थान के कारण मकवाना कहलाए।
इतिहासकार बांकीदास लिखते हैं “मारकंडे मोखरी वंश सूं हुआ, जिण सूं मखवान कहलाया”। अतः मार्कण्ड की संतान मखवाना हो सकती है। श्यामल दास भी वीर विनोद में लिखते हैं कि झाला अपनी पैदाइश मार्कण्डेय ऋषि से बताते हैं।
नैणसी की ख्यात में मकवाना के पूर्वजों में राणा मख नामक व्यक्ति का अस्तित्व ज्ञात होता है, जिससे मखवाना नामकरण हुआ।
मखवाना वंश का विस्तार
कालांतर में कुंतलपुर के राजा कुंत के एक वंशज राजा अमृतसेन जी हुए जिनके पांच पुत्र थे। चाचकदेवजी, वाचकदेवजी, शिवराजजी, वत्सराज जो यादवो के भांजे थे और पांचवे पुत्र मालदेवजी हस्तिनापुर के भांजे थे। एक बार वो पांचो भाई शिकार के लिए गए वहा उन पांचो के बीच विवाद हो गया और मालदेवजी वहा से रूठ कर हस्तिनापुर चले गए। फिर वहा से सेना लाकर चाचकदेव जी पर आक्रमण कर दिया। चाचकदेव जी युद्ध में हार गए और वहा से निकल कर फतेहपुर सीकरी चले गए, वहा अपनी राजसत्ता की स्थापना की।
इन के बाद पृथ्वीमल, सोसड़ा, रितु, केसर, धनंजय आदि नाम मिलते हैं। धनंजय ने परमारो से सिंध देश जीत लिया और कीर्तिगढ़ में अपनी राजधानी स्थापित की। मखवाना राजपूत सिंध पार कीर्तिगढ़ में (जो थारपारकर के पास है) मूल रूप से रहते थे। कीर्तिगढ़ के राणा विकासदेव मकवाना के पुत्र केशरदेव थे जो हमीर सुमरा से लड़ते हुए मारे गए। उसका पुत्र हरपाल गुजरात के बघेल नरेश करण देव के यहां जा रहा था। वहां कुछ गांव जागीर में मिल गए और वह पाटड़ी में रहने लगा।
हरपालदेव जी :
श्री केशरदेवजी विक्रम सम्वत 1105 में कीर्तिगढ़ की सत्ता पर आए। केसरदेव जी मकवाना और सिंध के सम्राट हमीर सुमरा के बीच युद्ध हुआ था। इस युद्ध में केवल राजकुमार केसरदेवजी और हरपालदेवजी ही बचे थे। अंततः मकवाना युद्ध हार गए। राजकुमार हरपालदेव ने जंगल में छिपने का निर्णय लिया। जंगल में रहने के दौरान उन्होंने वहां रहने वाले ऋषि मुनियों से विभिन्न कलाएं और काला जादू सीखा। उन्होंने अपना राज्य वापस पाने का निर्णय लिया। वे 'अनहिलपुर पाटन' (गुजरात) चले गए। उस समय गुजरात में करणदेव सोलंकी का शासन था। उन्होंने अपने रिश्तेदार कर्णदेव सोलंकी के यहां रहने का निर्णय लिया। तीरंदाजी और तलवारबाजी में निपुणता के कारण उन्हें अनहिलपुर पाटन के राज दरबार में स्थान मिला। करणदेव के कुटुंब के प्रतापसिंह सोलंकी की पुत्री शक्तिदेवी से हरपालदेव जी का विवाह हुआ। वहा पाटन के आसपास में 'बाबराभूत' नामके मायावी डाकू का आतंक था। हरपालदेव जी ने लोगो को बाबराभूत के आतंक से छुड़ाया। हरपालदेवजी ने अपने बाहुबल से बाबराभूत को अपने वश में किया, हरपालदेवजी के इस कार्य से राजा करणदेवजी प्रसन्न हो गए और हरपालदेवजी को वचन दिया की एक रात में वो जितने गाव को तोरण बांधेगे उतने गाव उनको दे दिए जाएंगे। हरपालदेव, शक्तिमाता और बाबराभूत ने मिलकर 2300 गांव को तोरण बांधे। पहला तोरण पाटडी गाव को बांधा, टूवा में विश्राम किया और आखरी तोरण दिघडीया गाव को बाँधा और सुबह हो गई। इस तरह हरपालदेवजी, शक्ति माता और बाबरभूत ने मिलके 2300 गॉव को तोरण बांधे। जिन में से 500 गॉव रानी कफुलंदा को दे दिए। इस तरह विक्रम सवंत 1156 में 1800 गॉव वाले विशाल साम्राज्य की स्थापना की व अपनी राजधानी पाटडी रखी। हरपालदेवजी और शक्ती मां के तीन पुत्र हुए सोढाजी, मंगुजी, शेखाजी और एक पुत्री हुई उमादेवी।
'मकवाणा' से "झाला" नामकरण :
मकवाना क्षत्रियों में 14वीं शताब्दी में झाला खाप की उत्पत्ति हुई। कई इतिहासकारों का मानना है कि झाला चूंकि सिंध से आए। झाला शब्द सिंधी के शब्द जला सरोवर से बना है। एक यह किंवदंती भी है कि जब शक्ति माता के तीनो कुंवर और एक चारण का बालक जब खेल रहे थे, तब गजशाला से एक भड़का हुवा हाथी उनकी और दोडा आ रहा था। तभी ये सब शक्ति माता ने देखा और महल के झरोखे से उन तीनो राजकुमारों को हाथ से झाल कर (पकड़ कर) अपने पास ले लिया और उस चारण के बालक को टापरी (धक्का) मार कर एक ओर कर दिया। इस घटना के बाद हरपालदेव जी के वशज झाला कहलाने लगे और उस चारण के वंशज टपरिया चारण कहलाने लगे। इस घटना से शक्तिदेवी का दैवी स्वरुप सब के सामने उजागर हुवा। उनके वचन के अनुसार अगर कोई उनकी वास्तविकता जान लेगा तो वो समाधी ले लेंगी, इस लिए उन्हों ने पाटडी से थोड़ी दूर 'धामा' में समाधी ले ली। धामा में आज भी चेत्र बदी तेरस के दिन उनकी पूजा होती है
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