जैसलमेर राज्य
Himmat Singh • 08 Nov 2025
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History
Hindi
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1155 ईस्वी में रावल दुसाझ के ज्येष्ठ पुत्र जैसल भाटी ने राजधानी लोद्रवा से 10 मील दूर जैसलमेर दुर्ग की नींव रखी। इनकी 9 राजधानीयो में से जैसलमेर को अंतिम राजधानी बतलाते है। इस विषय का एक पद्य भी है ….
मथुरा काशी प्राग बड़, गजनी अरु भटनेर।
दिगम् दिरावर लोद्रवो, नमो जैसलमेर।।
जैसल भाटी ने जैसलमेर दुर्ग की नींव रखी और उसके पुत्र शालीवाहन ने इस दुर्ग को पूर्ण करवाया। यह दुर्ग विशाल बनाया गया ताकि यहां के शासक शत्रुओं के आक्रमण के समय रियासत की जनता को दुर्ग के अंदर सुरक्षित रख सके।
रावल जैसल (1153 से 1168 ईस्वी) - रावल देवराज भाटी के वंश में छठा व देरावल के रावल दुसाज के सबसे बड़े पुत्र थे, जिसकी राजधानी लौद्रवा में थी। जब उनके पिता ने जैसल के छोटे भाई विजयराज लांझा को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया, तो जैसलदेव ने लोद्रवा से 10 मील दूर त्रिकूट पहाड़ी पर जैसलमेर कस्बा बसाकर जैसलमेर को अपनी राजधानी बनाया। जैसलदेव भाटी ने 12 जुलाई , 1155 ई. में जैसलमेर दुर्ग की नींव लगाई।
रावल शालिवाहन (1168 से 1200) : रावल जेसल ने गढ का कार्य शुरू किया था लेकिन उसकी की मृत्यु के बाद उसके पुत्र रावल शालिवाहन ने दुर्ग का अधिकांश कार्य (बुर्ज, महल, कुंए आदि) पूर्ण किया।
रावल केलण (कलिकर्ण) (1200-1219) : रावल जेसल का छोटा पुत्र केलण गद्दी बैठा। इसका वंश बहुत बढ़ा। भाटियों में अधिकांश इसके चार पुत्रों चाचग, आसराव, पाल्हण व लखमसी का ही वंश है।
रावल चाचक देव (1219-1241) : चाचग ने उमरकोट के सोढा राणा को जीतकर उसकी कन्या के साथ विवाह किया। खेड़ में राठोड़ों का राज हो गया था, चाचकदेव ने उन पर चढ़ाई की। परंतु राव छाड़ा के बेटे राव टीडा ने उसको बहन व्याह कर संधि कर ली। चाचग का पुत्र तेजसिंह पहले ही मर गया था। तेजसिंह के दो बेटों में से बड़े जैतसिंह को गद्दी न मिली, छोटा कर्ण गद्दी बैठा ।
रावल कर्ण सिंह प्रथम (1241-1271) : कर्नल टोड कहता है कि उस वक्त नागोर में जफर खां हिंदुओं पर बड़ा जुल्म करता था | बराहा जाती के भूमिया हासा की बेटी भगवती उसने मांगी। भूमिये ने इनकार किया और घर वार छोड़कर जेसलमेर की तरफ चला, जफर खां मार्ग में से उसको सकुटम्ब पकड़कर नागोर ले गया। यह सुनकर रावल कर्ण नागोर पर चढ़ा और लड़ाई में जफर को मारकर भगवती को सपरिवार छुड़ाया और उसे अपना ठिकाना पीछा दिलाया ।
रावल लाखन सेन (1271 - 1275) : रावल लाखन सेन बहुत ही भोला भाला था। उसकी रानी उमरकोट की सोढ़ी बहुत दबंग थी। जो वह कहती लखनसेन वैसे ही करता। जालोर के राव कान्हड़देव सोनगरा ने अपनी पुत्री उसको ब्याही, लेकिन रावल लाखन अपनी सोढ़ी राणी के कहने से नव ब्याहता को बिच रास्ते छोड़कर अकेला ही जैसलमेर चला गया। सोनगरी रानी ने इसे अपना अपमान समझा। तिरसिंगड़ी गांव के पास जिस तालाब पर डेरा था, वहां राठौड़ नीम्बा सीमालोत नहाने आया (निम्बा बहुत ही सुंदर, बलिष्ठ व वीर युवक था) ! सोनगरी की सहमति से नीम्बा ने उसके साथ के जालोर व जैसलमेर के सेवकों को मार भगाया व उसे अपने साथ ले गया। चार साल राज करने के बाद सरदारों ने लाखन को गद्दी से उतर कर उसके बेटे पुनपाल को राजा बना दिया।
रावल पुनपाल (1275-1276) : लखनसेन के पुत्र पुनपाल से चाचग देव के दूसरे पुत्र तेजराव के बड़े पुत्र जैतसी (जिसके हक को ऊलांच कर चाचग देव ने उसके छोटे भाई को वारिश बनाया था) ने छ महीने बाद ही राज छीन लिया।
रावल जैतसी प्रथम (1276-1294) : जैसलमेर की गद्दी पर जैत्र सिंह बैठे उस समय दिल्ली पर बलबन का शासन था। जैत्र सिंह के 2 पुत्र थे, उनके बड़े पुत्र का नाम मूलराज और दूसरे पुत्र का नाम रतनसिंह था। जैत्र सिंह के दोनों पुत्र बड़े वीर और बलशाली थे। महारावल जैत्र सिंह के वीर पुत्रों ने मिलकर मुल्तान थट्टा से आने वाला खजाना लूट लिया। यह खजाना दिल्ली ले जाया जा रहा था। जब इसकी सूचना अलाउद्दीन खिलजी को लगी तो उसने तुरंत निश्चय किया। दिल्ली से अलाउद्दीन खिलजी का सेनापति अपनी सेना को लेकर जैसलमेर सियासत की ओर बढ़ता चला आया। अलाउद्दीन की सेना ने जैसलमेर के स्वर्ण गिरी दुर्ग को चारों ओर से घेर लिया यह घेरा कई महीनों तक रहा। सेना के घेरे के दौरान ही जेत्रसिंह की दुर्ग में ही मृत्यु हो गई ।
रावल मूलराज प्रथम (1294 - 1295) : जैसलमेर का प्रथम साका : जेत्रसिंह की मृत्यु के पश्चात् उसका पुत्र मूलराज रावल बना। किले में रसद समाप्त हो जाने पर सूर्य की पहली किरण के साथ महारावल मूलराज की सेना हर हर महादेव और जय भवानी के नारों के साथ शत्रु सेना पर टूट पड़ी। महारावल मूलराज उसका छोटा भाई रतन सिंह और वीर भाटी योद्धा लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त हुए और किले के अंदर महारानी के नेतृत्व में रानियों ने जोहर किया।
रावल दूदा (1295-1306) : रावल जैसल के पुत्र रावल केलण का एक पुत्र पोल्हण था। पोल्हण के पुत्र जसहड़ के 5 पुत्र थे- दूदा, तिलोकसी, बांगण, सांगण, आसकरण। साके व जोहर के बाद जेसलमेर का गढ़ सूना था। रावल मल्लिनाथ राठौड़ का ताकत उस वक्त बढ़ा हुआ था, मल्लिनाथ के बेटे जगमाल ने गढ़ खाली देखकर उस पर अधिकार कर लेने का विचार किया। वहाँ जा रहने की तैयारी करके 300 गाड़े रसद सामान के भरवाकर वहाँ पहुँचा दिए। बारहठ चंद्र रतनू माला का बेटा आपत्ति का मारा मेहवे जा रहा था, सो उसने जाना कि गढ़ मेरे स्वामियों के हाथ से जाता है। उसने दूदा तिलोकसी को जो पारकर में रहते थे इस बात की खबर पहुँचाई। दूदा तिलोकसी पहले ही गढ़ में आ जमे और पीछे से जगमाल आया। उसने वहाँ घोड़ों के धँस (खुरचिह्न) देखे | पूछा कि यह क्या बात है, बारहठचंद्र ने जो जगमाल के साथ था, कहा कि दूसरा कोई भाटी ऐसा दिखता नहीं जो गढ़ में आ बैठे और शायद दूदा तिलोकसी जसहड़ के पुत्र होवें। जगमाल वहीं ठहर गया और खबर के वास्ते अपने दो राजपूत को भेजा। उन्होंने जाकर देखा तो दूदा तिलोकसी ही है। उन्होंने उन राजपूतों के साथ जगमाल को जुहार कहलाया और कहा कि हमारा गढ़ था सो हमने लिया। आदमियों ने यह समाचार जगमाल को जा सुनाए तो उसने पोछा कहलाया कि हमारे 300 छकड़े सामान के तो भेज दो। उत्तर दूदा की तरफ से यही आया कि वे तो हमने ले लिये, अब तुम जहाँ देखो हमारे गाड़े ले लेना। यह सुनकर जगमाल पीछा लौट गया और दूदा गद्दी पर बैठा। रावल दूदा का पराक्रम और जैसलमेर का दूसरा साका : जब रावल मूलराज व रतनसी ने शाका करने का निश्चय किया था इस वक्त दूदा ने भी उनके साथ वही प्रण लिया था। रावल दूदा जब जैसलमेर के शासक थे तब उस समय दिल्ली पर फिरोजशाह तुगलक का अधिकार था। दूदा के शासक बनते ही दिल्ली के शासक फिरोजशाह तुगलक ने अपनी सेना को जैसलमेर पर आक्रमण करने के लिए भेजा। इस आक्रमण का जवाब रावल दूदा ने बड़ी वीरता से देते हुए अपने भाइयों व् पुत्रों सहित वीरगति को प्राप्त की और वीरांगनाओं ने जोहर किया, यह जैसलमेर का दूसरा साका था।
रावल घड़सी (1306 - 1335) : जैसलमेर के पहले साके के वक्त जब रावल मूलराज व रतनसी ने शाका करने का निश्चय किया था इस वक्त वंश बचने के लिए रतनसी के पुत्रों घड़सी, उनड़, कान्हड़ व् एक भांजे देवड़ा को कमालदीन (जोकि उसका पगड़ी बदल भाई था) के सुपुर्द किया था। रावल दूदा के साके के बाद रावल मूलराज का पौत्र देवराज जैसलमेर का राजा बनना चाहता था, लेकिन रतन सिंह के पुत्र घड़सी ने फिरोजशाह से विश्वास हासिल कर लिया और वह जैसलमेर का रावल बन गया। रावल घड़सी ने घड़सीसर सरोवर का निर्माण करवाया।
रावल केहर (1335-1402) : रावल घड़सी को दूदा के भाई तेजसी ने धोखे से मार डाला। रावल घड़सी के कोई पुत्र न था। उसकी रानी विमला दे (जोकि रावल मल्लिनाथ राठौड़ की पुत्री थी) ने बारू छाहण से रावल मूलराज के पौत्र, देवराज के पुत्र केहर को बुलाकर गोद लिया।
रावल लक्ष्मण (1402-1436) : केहर का बड़ा पुत्र था। लेकिन उसने पिता को पूछे बिना अपना विवाह महेचा में कर लिया था। सो केहर ने उसको निर्वासित कर दूसरे पुत्र लक्ष्मण को पाटवी बनाया (मुहणोत नेणसी) । इसके तीन पुत्र हुए- वैरसी, रूपसी और राजधर।
रावल वैरसी (1436-1448) : चार पुत्र- चाचग, ऊगा, मेला और बणवीर।
रावल चाचक देव II (1448-1457) : रावल चाचकदेव, वैरसी का पुत्र गद्दो पर बैठा। किसी काम के वास्ते सूराकर से ठट्टे गया था। लौटते वक्त ऊमरकोट के स्वामी सोढा मांडण ने अपनी भतीजी का विवाह उसके साथ किया। ऊमरकोट व जेसलमेर के स्वामियों में सदा से शत्रुता चली आती थी। रावल चाचग ने मांडण के भतीजे भोजदेव को कुछ कुवचन कहे, जिस पर भोजदेव ने चूक करके रावल को मार डाला।
रावल देवीदास (1457-1497) : सोढों ने अपनी बेटी का विवाह चाचग के साथ कर फिर दगा से उसको मार डाला तो उसके साथ के भाटियों ने दो-चार कोस 'दूर जाकर डेरा डाला और जेसलमेर से चाचग के पुत्र देवीदास को बुलाया। जब वह आया तो भाटियों ने उसके तिलक (गद्दी का) करना चाहा। परन्तु देवीदास बोला कि में अभी टीका लेना नहीं चाहता, या तो में अपने पिता के मारनेवाले को मारूंगा या में ही मरूँगा | उसके सब साथी भी पूर्ण उत्तेजित होकर उससे सहमत हुए और ऊमरकोट पर धावा कर दिया। गढ़ में जा घुसे और बहुत से सोढों को मार गिराया। मांडण अपने भतीजों भीमदेव, भोजदेव सहित निकल भागा, परंतु पीछा कर आठ कोस पर उसे जा लिया और लड़ाई हुई जहाँ मांडण, भीमदेव व भोजदेव १४० सोढों सहित मारे गए। ऊमरकोट के गढ़ को गिराकर देवीदास उसकी ईंटे जेसलमेर ले गया, जिनसे कर्ण मद्हल चुनवाया। रावल देवीदास के समान कोई प्रतापी रावल जेसलमेर की गदो पर न हुआ। उसने आस-पास के सब राज्यों से छेड़-छाड़ लगाई। उसके तीन पुत्र — जैतसी, कुंभा और राम हुए।
रावल जैतसी II (1497-1530) : इनके समय इनके पुत्र लूणकरण ने 'जेतबंध यज्ञ' का आयोजन कर उन भाटियों को बुलाया, जिन्होंने सिंध में जाकर इस्लाम धर्म स्वीकार कर लिया और उन्हें पुन: हिंदु धर्म में शामिल करवाया। शुद्धिकरण की दिशा में यह पहली घटना थी। इसके नो पुत्र थे, जिनमे आपस में अनबन रहती थी। जिससे उसके पुत्र जयसिंह, नारायणदास व पुनसी ने मिलकर अपने भाइयों लूणकरण व करमसी को देश से निकाल दिया जोकि सिंध में जा रहे, रावल जेतसी को कैद में रखा। फिर जेतसी ने दूसरे बुजुर्ग सरदारों से गुप्त मंत्रणा कर लूणकरण व करमसी को बुला भेजा। लूणकरण व करमसी ने आकर गढ़ पर कब्ज़ा किया व जेतसी को सिंहासन पर बिठाकर उसकी दुहाई फेर दी। इसके पुत्र- लूणकरण, करमसी, महिरावण, राजा, मंडलीक, नरसिंह, जयसिंहदे, राम, तिलोकसी हुए।
रावल लूणकरण (1530-1551) : आमिर खा का विश्वासघात और अर्द्ध साका : जेतसिंह की मृत्यु के बाद उसका छोटा पुत्र लूणकरण 1528 ई. में जैसलमेर का शासक बना। सन 1550 में जैसलमेर रियासत के महारावल लूणकरण की वीरता को देखते हुए कंधार के शासक ने जैसलमेर पर अधिकार करने की एक कायर पूर्ण रणनीति बनाई। कंधार के शासक ने अपने सेनापति अमीर खां को महारावल लूणकरण के यहां भेजा और रणनीति के हिसाब से अमीर खान ने महारावल से प्रार्थना की की आप मुझे अपनी शरण में जगह प्रदान करें नहीं तो कंधार का शासक मुझे मार डालेगा। शरणागत की रक्षा करना राजपूत अपना कर्तव्य मानते थे। आमिर खां अपने साथ कई सैनिकों को महिला की वेशभूषा में किले के अंदर ले आया और रात्रि को अचानक से आक्रमण कर दिया। इस आक्रमण का पता जब महारावल लूणकरण भाटी लगा तो उन्होंने इस आक्रमण के लिए बिना तैयारी के ही युद्ध करने का निश्चय किया। वीर भाटी सिरदारो ने सबसे पहले अपनी रानियों के सर अपनी तलवार से अलग किए और फिर शत्रु सेना पर टूट पड़े। अचानक हुए आक्रमण में भाटी योद्धा लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त हुए। इतिहास में इस युद्ध को आधा साका कह कर संबोधित किया जाता है क्योंकि इसमें भाटियों ने केसरिया तो किया लेकिन रानियों को जोहर करने का अवसर नहीं मिला। इतिहास में जैसलमेर का यह दुर्ग ढाई साको के लिए प्रसिद्ध है।
लूणकरण के छः पुत्र मालदेव, सूरजमल, महेशदास, हरदास, दुर्जनसाल, विजयराव व तीन पुत्रियाँ थी। बडी पुत्री रामकुँवरी तथा छोटी पुत्री उमादे का विवाह जोधपुर के महाराजा मालदेव के साथ व बीच की पुत्री का विवाह उदयपुर के महाराणा उदयसिंह के साथ किया। लूणकरण की पुत्री उमादे इतिहास में रूठी रानी के नाम से प्रसिद्ध हुई।
रावल मालदेव (1551-1562) : 9 पुत्र हुए- रावल हरराज, भवानीदास, नारायणदास, सूरजभान, उदयसिंह, डूंगरसी, खेतसी, जैतसी, सहसमल।
रावल हरराज (1562-1577) : क्योंकि राड़धरा के राव ने अपनी बेटी को, जिसका विवाह रावल मालदेव के साथ हुआ था, रावल के मरने पर जालोर के खान गजनी खां पठान को दे दी थी, इसलिए रावल हरराज ने भाटी खेतसी को भेजकर राड़धरा विजय किया और वहाँ के गढ़ को गिरवाकर ईंटे जेसलमेर मँगवाई। गाँव कोढणा जोधपुर इलाके में था, उसे जेसलमेर में मिलाया। कोढणे के वासते रावल मेघराज से बड़ी चदाबदी हुई। 6 मास तक उभय पक्ष वाले परस्पर लड़े, पीछे अपनी पुत्री का व्याह कर कोढणा दिया और सात गाँव उससे लिए - श्रोला, बड़ा, डोगरी, बोझोराई, कोटड़ियासर, भीमासर और खोडावड़ | महारावल हरराज के समय में दिल्ली पर अकबर राज्य करता था। जिनकी सेवा में अन्यों की उपस्थति देखकर महारावल ने अपने छोटे पुत्र सुल्तानसिंह को अकबर की सभा में भेजा। जोधपुर के राव मालदेव के पुत्र चंद्रसेन ने जैसलमेर में पोकरण व फलोदी परगनों पर अपना अधिकार कर लिया था, कुमार सुल्तानसिंह के वीरता से प्रसन्न होकर दिल्ली सम्राट ने वे दोनों प्रदेश भाटी राज्य में सामील कर दिए। महारावल हरराज ने किले में एक महल बनवाया जो हरराज जी के मालिये के नाम से प्रसिद्ध है। इनके चार पुत्र १.भीमसिंह २.कल्याणमल ३. भाखरसिंह ४. सुल्तानसिंह हुए। रावल हरराज तक तो जेसलमेर के स्वामी स्वतंत्र रहे, हरराज ने मुगल शाहशाह अकबर की सेवा स्वीकारी। (अबुलफज़ल अपनी किताब अकबरनामे में लिखता है कि ‘’सं० 978 हिजरी (1570 ई० स० 1627 वि० स.) में अजमेर होता हुआ बादशाह नागोर पहुँचा, वहाँ आम्बेर के राजा भगवानदास के द्वारा जेसलमेर के राय हरराज ने बादशाही सेवा स्वीकार कर अपनी बेटी बादशाह को ब्याह दी, जिसका देहांत सं० 1634 वि० में हुआ) !
रावल भीम सिंह (1578-1624) : रावल भीम बड़ा प्रतापी, बड़ा दातार, जुझार व जबर्दस्त राजा हुआ। बादशाह अकबर के पास बहुत चाकरी की। रावल भीम ने पृथ्वीराज के पुत्र जगमाल को पोकरण का स्वामी बनाया था, परन्तु रतनसी के पुत्र भैरवदास ने जगमाल को मारकर कोटड़ पर अधिकार कर लिया। जगमाल के पुत्र उदय सिंह व चांदा रावल भीम के पास पुकार ले गये। तब रावल चढ़ आया, भैरव भी सम्मुख हुआ। रावल ने उससे गाँव माँगा, उसने देना स्वीकारा नहीं किया। सींव से कोस 4, वड़ने से कोस एक गाँव लुणोदरी की तलाई पर लड़ाई हुई और भैरवदास 7 राजपूतों सहित मारा गया । रावल ने भैरव के पुत्र राणा किसना को कोटड़े का टीका दिया। जब रावल भीम जेसलमेर की गद्दी पर था तब ऊहड़ गोपाल दास के बेटे अर्जुन, भूपत व मांडण पोकरण के बहुत से गाँव लूट कर वहाँ का माल (गाय भैंसादि पशु ) ले निकले। पोकरण के थानेदार भाटी कल्ला जयमलोत, भाटी पत्ता सुरतानोत और भाटी नंदा रायचंद पीछे पड़कर वलसीसर पाये। गोपालदास के बेटे ने कोटड़े से अपने आदमियों को बुलाया और प्रभात होते ही ढोरों को आगे करके रवाना हुए। पोकरणवालों ने उनका मार्ग रोका। लड़ाई हुई, सभी पक्ष के कई मनुष्य मारे गये। रावल भीम को भाटी गोयंददास (गोविददास) ने कहा कि गोपालदास मेरी आज्ञा के बाहर है आप उससे समझ लीजिए। रावल ने जेसलमेर की सब सेना देकर अपने छोटे भाई कल्याणदास को कोटड़े पर भेजा और उसे विजय किया ।” (मुंहणोत नेणसी री ख्यात- पृष्ठ 342 )
रावल भीम ने जेसलमेर के गढ़ की मरम्मत कराई। वि० सं० 1647 में मिर्जा खानखाना के साथ रहकर उड़ीसा और बंगाल की लड़ाइयो में अच्छी कारगुजारी दर्शाई। भीमसिंह ने अपनी पुत्री का विवाह सलीम (जहाँगीर) से किया। जहाँगीर बादशाह बना तो उसने इस बेगम का नाम ‘मलिका-ए-जहाँ' रखा। रावळ भीम के नाथू नामक एक पुत्र दो मास का होकर मर गया था इसलिए बादशाह जहांगीर ने उसके छोटे भाई कल्याण को जेसलमेर दिया।
रावल कल्याणदास (1624-1634) : भीम के निरसन्तान मरने पर रावल कल्याणदास हरराजोत (रावल भीम का छोटा भाई) गद्दी पर बैठा जो ढीला सा ठाकुर था। राजपूतों और प्रजा का अच्छा पालन किया। शरीर बहुत भारी था। पाट बैठने पीछे एक बार बादशाह के हजूर में गया बाकी सदा गढ़ में बैठा रहा। उसके जीते जी सारी दौड़धूप कुँवर मनोहरदास करता था, वह तो केवल एक बार ही रावल भीम के राज समय में कोढणां पर गया और ऊहड़ गोपादास को मारा था।
रावल मनोहर दास (1634-1648) : मनोहरदास वीर था। कुंवरपदे में ही एक लड़ाई में उसने अलीखां बिलोच को मारा। जगमाल मालावत के वंश के पोखरणे राठौड़ बारोठिये हो महेवे में जा रहे और पोखरण लूटा तो रावल मनोहरदास ने उनका पीछा किया। 40 कोस पर जेसलमर मेहवे की सरहद के पास उन्हें जा लिये, फलसूड से कोस 6 पर लड़ाई हुई। राठौड़ के कई सर्दार मारे गए। पीछे पोखरणे आकर रावल के पाँवों पड़े तब उनको पीछे बुला लिये। सं० 1684 पौष यदि 8 को इस्माइल खाँ बिलोच के बेटे मुगलखां को विकमपुर के गाँव भारमलसर में मारा। मनोहरदास के कोई संतान नहीं थी।
रावल रामचंद्र (1648-1651) : रावल मनोहरदास के निस्संतान मरने पर रानियों से मिलकर रावल रामचंद्र (रावल मालदेव के पुत्र भवानीदास के पुत्र सिंघ का पुत्र) टीके बैठा और भाटियों को भी अपने पक्ष में कर लिया। उस वक्त सीहड़ रघुनाथ भणोत उपस्थित न था। जेसलमेर में सीहड कर्ता-धर्ता था, इसलिए रघुनाथ के मन में इसकी आँट पड गई। उस समय रावल मालदेव के दूसरे पुत्र खेतसी के पुत्र दयालदास का पुत्र सबल सिंह, आमेर के राव रूपसिंह कछवाहा (राजा भारमल का पौत्र) के यहाँ नौ दस हजार साल के पट्टे पर चाकरी करता था और पादशाह शाहजहाँ की रूपसिह पर बड़ी कृपा थी। उसने सबलसिंह के वास्ते बादशाह से अर्ज की और उसे पाँव लगाया। बादशाह ने भी उसको जेसलमेर की गद्दी देना स्वीकार किया, और भाटी रामसिंह पचायणोत और कितने ही दूसरे और भाटी खेतसी की सतान सबलसिंह से आ मिले। इसी अवसर पर महाराजा जसवतसिंह ने बादशाह से अर्ज की कि पोकरण हमारा है किसी कारण से थोडे अर्से से भाटियों की वहाँ अधिकार मिल गया सो अब इजाजत फर्मायें तो मैं पीछा ले लूँ। बादशाह ने फर्मान कर दिया। महाराजा स० 1706 के वैशाख शुदि 3 को जहानाबाद से मारवाड में आया और ज्येष्ठ मास में जोधपुर आते ही राव सादूल गोपालदासोत और पचोली हरीदास को फर्मान देकर जेसलमेर भेजा। राब रामचंद्र ने पाँच भाटी सर्दारों की सलाह से यह उत्तर दिया कि "पोकरण पाँच भाटियों के सिर कटने पर मिलेगा।" जोधपुर में कटक जुडने लगा और उधर बादशाह को भी खबर हुई कि रामचंद्र ने हुक्म नहीं माना। अवसर पाकर सबलसिंह ने पेशकश देना और चाकरी बजाना स्वीकार कर जेसलमेर का फर्मान करा लिया। भाटी रघुनाथ व दूसरे भाटी भी रामचंद्र से बदल बैठे और गुप्त रीति से उन्होंने सबल सिंह को पत्र भेजा कि शीघ्र आओ हम तुम्हारे चाकर हैं। बादशाह ने जेसलमेर का तिलक देकर सबलसिंह को विदा किया और रूपसिंह कछवाहा ने खर्च देकर सहायता की। सात आठ सौ मनुष्यों की भीडभाड से सबलसिंह ने फलोधी की कुण्डले में भोलासर पर आकर डेरा दिया। जेसलमेर वाले भी 1500 सैनिकों से शेखासर के परे जवावधारा की तलाई पर आ उतरे। सेना नायक भाटी सीहा गोयंददासोत था। पोकरणवाले और केलण (भाटी) भी साथ में थे। सबलसिंह ने आगे बढ़कर उन पर धावा किया, दिन-दिहाड़े युद्ध हुआ। सबलसिह जीता और जेसलमेर की सेना भागी।
तत्पश्चात् जोधपुर महाराजा जसवतसिंह की सेना जल्द ही पोकरण आई। सबलसिंह भी 700 आदमियों सहित महाराजा से आ मिला। सं० 1707 के कार्तिक मास मे गढ़ से आध कोस के अंतर पर डुंगरसर तालाब पर डेरा हुआ। तीन दिन तक गढ़ पर धावे किये जिससे भीतरवाले भयभीत हो गये। सबलसिंह ने रामसिंह पंचायणोत को, राव गोपालदास विट्ठलदास व नाहरखाँ से मिलकर, गढ़वालों के पास भेजा। फिर सबलसिंह उपर्युक्त सर्दारों से मिलकर जेसलमेर को रवाना हुमा। आध कोस गया होगा कि खबर आई कि रावल रामचंद्र ने भाटी सर्दारों से कहा कि मुझे कुटुंब व मालमते सहित निकल जाने दो तो में देरावर चला जाऊँगा। सीहड़ रघुनाथ, दुर्गदास, सीहा, देवीदास व जसवत पाँच भाटियों ने रामचंद्र की बात मानी और कहा कि चले जाओ। वह माल असवाब व अच्छे अच्छे घोड़े ऊँट लेकर दरावर में जा रहा है, और राजधरो की शाखा का भाटी जसवत बैरसलोत उसके साथ गया। यह समाचार सुनने ही सबलसिंह आतुरता के साथ जेसलमेर आकर गद्दी बैठा। रावल रामचंद्र ने दस महीने बीस दिन राज किया। खडाल व देरावर पीछे को बहावल खा पठान (भावलपुर वाला) ने छीन लिया और रावल रामचंद्र के संतान भागकर बीकानेर गये जहाँ उनको गडियाला जागीर में मिला।
रावल सबल सिंह (1651-1661) : रावल सबलसिंह ने अपने मामा किसन गढ़ के महाराज के शाही सम्राट शाहजहाँ की सेवा में उच्च पद पर नियक्त कर शाही खजाने को लुटने वाले अफगानों को पराजीत कर शाही खजाने का समस्त धन सम्राट को वापिस ला दिया। इससे संतुष्ट हो कर सबलसिह को सन 1655 में बादशाह के तरफ से एक हजारी मनसब मिला था। सबल सिंह ने नौ दस वर्ष राज किया। इनके सात पुत्र - अमरसिंह, महासिंह, रतनसिंह राजसिंह, माधोसिंह, भावसिंह, बांकीदास हुए।
महारावल अमर सिंह (1661-1702) : रावल अमरसिंह के समय में इनके सामंत सुन्दरदास और दलपतसिंह ने बीकानेर के झज्जू गाँव को लुट कर जला दीया। इस पर बीकानेर के राजा अनूपसिह ने कांधलोत राठौड़ों को जेसलमेर पर भेजा परंतु अमरसिंह ने उन्हें पराजित किया। पुगल के राव ने जैसलमेर का सामंत होते हुए भी इस युद्ध में महारावल का साथ नहीं दिया। अतः उनको भी उचित शिक्षा दी इन्होने कोटड़ा और बाड़मेर के राठोड़ सामंतों को भी अपने अधीन कर लिया। रावल ने जैसलमेर से सम सडक पर चार किलोमीटर पर अपने नाम से ऐक अमर सागर तालाब का निर्माण करवाया। अमरेश्वर महादेव की स्थापना की। अपने नाम से अमर बाव तथा महारानी के नाम से अनूपबाव का निर्माण करवाया। ये 1756 वि. में बनवाये थे। अमरसागर में ऐक बाग भी लगवाया। महारावल अमरसिंह ने राव वेणीदास को लाख पसाव का दान दिया। इनके 13 रानियों से 18 पुत्र हुए - १.जसवंतसिंह २.दीपसिंह ३.विजेसिंह ४.कीरतसिंह ५.सामसिंह ६.जैतसिंह ७.केसरसिंह ८.जुझारसिंह 9.गजसिंह १०.फतेसिंह 11.मोकमसिंह १२.जयसिंह 13.हरिसिंह 14.इन्द्रसिंह 15 माहकरण सिंह 16.भीमसिंह 17.जोधसिंह 18.सुजानसिंह।
महारावल जसवंत सिंह (1702-1708) : महारावल जसवंतसिंह वृद्धावस्था में सिंहासन बैठे थे, केवल 6 वर्ष राज्य किया। इनके पांच पुत्र- जगतसिंह, इश्वरसिंह, तेजसिंह, सरदारसिंह, सुल्तानसिंह जी थे। इनके ज्येष्ठ पुत्र जगतसिंह ने किसी कारणवश अपने पिता के विद्यमान में ही आत्महत्या कर ली थी। जगतसिंह के तीन पुत्र बुधसिंह, अखेसिंह, जोरावरसिंह थे।
महारावल बुद्ध सिंह (1708-1722) : रावल जसवतसिंह के स्वर्गवास के बाद जैसलमेर के सिंहासन पर उनके स्वर्गवासी बड़े पुत्र जगतसिंह के पुत्र बुधसिंह बैठे। ये नाबालिग थे अतः राज्य भार उनके चाचा तेजसिंह ने अपने हाथों में लेना चाहा। परन्तु कृतकार्य न होने पर उसने बालक महारावल को अपनी ऐक दासी द्वारा विष दिलवा कर मरवा डाला और खुद राजसिंहासन पर बैठ गए।
महारावल तेजसिंह (1722-1722) : तेजसिंह ने बुद्धसिंह को अपनी दासी द्वारा विष दिलवा कर मार डाला और स्वयं गादी पर बैठ गए। इसका महारावल जसवंतसिंह के लघु भ्राता (तेजसिंह के चाचा) हरिसिंह जो बादशाही नौकरी में थे, उन्हें पता चला तो इससे वह नाराज हुए, और तेजसिंह को मारने का उपाय सोचते रहे। जैसलमेर के प्रोळ के बहार गड़सीसर तालाब पर प्रचलित रीति के अनुसार ऐक दिन तेजसिंह उस तालाब की मिटटी निकालने को गया देख वृद्ध हरिसिंह ने उस पर हमला किया और तेजसिंह को सख्त घायल कर दिया। भागता हुए हरिसिंह भी मारा गया और उधर तेजसिंह भी परलोक सिधार गए।
महारावल सवाई सिंह (1722-1722) : तेजसिंह के मरने पर उसका पुत्र सवाई सिंह जैसलमेर के राजसिंहासन पर बैठा। इससे अखेसिंह (महारावल बुद्ध सिंह का छोटा भाई) निराश हो कर छोड़ ग्राम में जाकर रहने लगे। वहां अखेसिंह ने बहुत सेना इकठ्ठी कर ली, और अपने राज्य के सामंतों व् प्रजा वर्ग को कहलाया की न्याय पूर्वक राज्य अधिकारी में हूँ। अतः मेरी तलवार के बल से राज्य प्राप्त करूँगा। जैसलमेर की सब जनता यह चाहती थी, सबने उनका साथ दिया। यह देख सवाईसिंह को सहायक अपने साथ लेकर भाग गए।
महारावल अखेसिंह (1722 - 1762) : महारावल अखेसिंह जब सिंहासन पर बैठे, उस समय गृह कलह का फायदा उठाअफगान दाउद खां ने भाटी राज्य का समस्त पश्चमी भाग छीन लिया था। भाटियों की पुरानी राजधानी देरावर और खडाल प्रदेश को अपनेअधिकार में कर लिया और भावी भावलपुर राज्य की उसने नीव डाली। इस समय जोधपुर में महाराज बखतसिंह अपने भतीजे रामसिंह को गादी से उतारकर आप जोधपुर के सिंहासन पर बेठ गए थे। तब क्रोधित होकर रामसिंह ने मराठों की सेना लेकर जोधपुर पर आक्रमण किया उस समय अखेसिंह स्वयं सेना लेकर जोधपुर के राजा बखतसिंह की ससहायता के लिए जोधपुर गए। उस जंग में मोहता फतेहसिंह दीवान शहीद हुए। वहां पर मोहता फतेसिंह की छतरी अभी भी मौजूद है। महारावल अखेराज ने जैसलमेर में चौरी डकेती बंद की। अखेविलास महल और अखे पोल बनवाई। सं.1794 वि. में गढ़ विकमपुर खालसे किया। महारावल ने प्रचलित मोहमद साही सिक्के को बदल कर अपने नाम से अखेसाही सिक्के का प्रचलन किया, जो चांदी का सिक्का होता था। रुपया ,अठ्ठनि ,चौआनी व दुआनी का सिक्का होता था। इनके चार पुत्र- १.मूलराज २.खुसालसिंह ३.रतनसिंह ४.पदमसिंह थे।
महारावल मूलराज द्वितीय (1762-1820) : महारावल मूलराज के शासन काल में उनके सामंत गणों ने कलह करना समीपवर्ती अन्य राज्यों में लूट खसोट करना शुरू कर दिया था। उस समय चारों और अशांति फेली हुयी थी,| भाटी राज्य के हित चिंतकों को यह आसंका होने लगी की कहीं पास के राजा लोग इस प्राचीन राज्य को हानि न पहुंचाए। महारावल की आज्ञा से प्रधानमंत्री स्वरूपसिंह ने उनको दमन करने का प्रयतन किया। जिससे समस्त भाटी गण उनसे रुष्ट हो गए। महारावल मूलराज के बड़े पुत्र रायसिंह से भी स्वरूपसिंह का वैमनष्य हो गया। वे भी स्वेछाचार मंत्री को पदच्युत करने हेतु सामंत गणों से मिल गए। सामंत गणों ने कहा की इस मंत्री ने महारावल को अपने वश में कर रखा है। अतः इसे बगेर मारे यह ये अधिकार से नहीं हटेगा। इस प्रस्ताव से युवराज भी सहमत हो गए, और सं.1839 वि की मकर सक्रांति के दिन महारावल के दरबार में सब उपस्थ्ति हुए। सभा विसर्जन के समय सामंतो के इशारे से महारावल के सिंहासन के पास बैठे हुए प्रधान मंत्री स्वरूपसिंह को राजकुमार रायसिंह ने अपनी तलवार से मार डाला। युवराज और सामंत गणों को ऐक मत देख कर महारावल अंतपुर में चले गए। युवराज ने राज्य कार्य आपने हाथों में ले लिया, और महारावल को सभा निवास नामक राजप्रसाद में नजर बंद कर दिया। इस गृह कलह के फलस्वरूप और ज्यादा अराजकता फ़ैल गयी। भाटियों के चिर शत्रु बहादुर खां ने भी भाटी राज्य में दीनपुर नामक नवीन दुर्ग बनवा लिया और देरावर प्रदेश भी भाटियों से छीन लिया। ये प्रदेश भावलपुर रियासत में मिला दिया गया। इधर महाराजा जोधपुर ने बाड़मेर, कोटड़ा शिव आदी समस्त प्रदेशो को अपने अधिकार में कर लिया। इस प्रकार प्राचीन भाटी राज्य की दुरावस्था देखकर जैसलमेर के झिनझिनयाली के अनोपसिंह जोकि महारावल के बंधन का कारन थे ,उनकी पत्नी के हृदय में महारावल मूलराज को बंधन मुक्त करने की तीव अभिलाषा उतपन्न हुयी। इसके वीर पुत्र जोरावर सिंह ने अपनी राज्य भक्त माता की सहमति से रामसिहोत भाटियों की सहायता से महारावल को मुक्त कर दिया। इन वीर रामसिहोत सामंतो की सहायता से महारावल ने उसी समय राज्य अधिकार को अपने हाथ में ले लिया। सबसे पहले उन्होंने अपने पुत्र रायसिंह को देश निकाले का दंड दिया और अपने प्रिय स्वरूपसिंह के पुत्र सालमसिंह को अपना मंत्री बनाया। जोरावरसिंह ने भी अपनी राज्य भक्ति द्वारा महारावल के दरबार में पूरा अधिकार कर लिया। सालमसिंह ने ने प्रधानमंत्री का पद प्राप्त अपने पितृ हन्ता से बदला लेना चाहा। परन्तु जोरावरसिंह की उपस्थति में अपने को असफल मनोरथ देख पहले तो उसने जोरावरसिंह को ही उसके छोटे भाई की पत्नी द्वारा विष दिलवाकर मरवाया।
उधर युवराज निर्वासित होकर कुछ समय तक तो जोधपुर में महाराज विजयसिंह के पास रहे, परन्तु वापस आ गए। महारावल ने युवराज रायसिंह को वापस आया देख मंत्री सालमसिंह की सलाह से उसको सशत्र हीन कर देवा के किले में सुकुटुम्ब रहने भेज दिया। जहाँ युवराज और उसकी पत्नी अग्निकांड में मंत्री के षड्यंत्र द्वारा जल गए। उनके दोनों पुत्र अभयसिंह व जालमसिंह सोभाग्य से बच गए और जैसलमेर आ गए। प्रधानमंत्री ने यो तो उनके साथ हार्दिक सहानुभूती प्रकट की परन्तु उसके मन में यह आशंका उतपन्न हुयी की इस घटना से दयाद्र हो कर यदि महारावल ने इनको पास रख दिया, कुछ राज्य अधिकार दे दिए तो मेरे शासन में बाधा उतपन्न हो जाएगी। असल में क्रूर सलिम्सिंह जालिम का भी काम तमाम करना चाहता था, अतः इनको अराजक भाटियों में मिले पहुए प्रमाणत कर महारावल द्वारा उन्हें राजधानी से दूर रामगढ़ नामक दुर्ग भिजवा दिया गया। उसका विचार महारावल के छोटे पुत्र जेतसिंह के पोत्र बालक गजसिंह को राज्य दिलाकर अपने मंत्री पद को अपनी संतान के हाथों तक स्थिर रखना था। क्रूर मंत्री सालमसिंह ने अपने पिता की हत्या में सहायक बारू टेकरा आदी के वीर सामंतो को भी अपनी कूटनीति द्वारा मरवा डाला। इस भय से राजपरिवार के समस्त राजकुमार भयभीत होकर जोधपुर बीकानेर आदी पास के राज्यों में अपनी रक्षार्थ चले गये। इस प्रकार कूटनीतिज्ञ सालमसिंह षड्यंत्रों द्वारा कई राजकुमारों व सामंत गणों को मरवा निर्भय हो गया। इस और से निश्चिन्त होकर उसने प्रजा पर अत्याचार करना शुरू किया। जिससे तंग आकर महेश्वरी, पालीवाल आदी जातियों के समृद्धि शाली मनुष्य राज्य छोड़कर विदेशों में जाने लगे। विदेशो में भी जाने वालों की बड़ी दुर्दशा होती थी। वे लोग अपना मॉल भता लेकर वहा से रवाना होते ,रस्ते में बागी सामंत गण उन्हें रस्ते में लूट लेते। इस प्रकार राज्य में उस समय महान अशांति फेल गयी। उधर चारों तरफ से पड़ोसी राजाओं ने जैसलमेर के अधीन कई प्रान्तों को अपने अधिकार में कर लिए। इससे राज्य की सीमा जो अत्यंत विस्तृत थी, काफी संकुचित हो गयी। उस समय मुगलों का सूर्य अस्त हो रहा था, इसलिए तमाम भारत में अशांति फ़ैल रही थी। शक्तिशाली राजा निर्बलों पर अपना अधिकार जमा रहे थे, और मनमानी लूट खसोट हो रही थी। महारावल को आखिर अपनी इस अवनति का भान हुआ, अतः उन्होंने अपने राज्य को फिर उन्नत करने का विचार किया। अपनी सेना नह्वर गढ़ भेजी यह सेना 5 माह तक दुर्ग को घेरकर लड़ती रही, परन्तु उधर उस समय दिल्ली आगरा आदी मुग़ल राजधानियों पर ईस्ट इंडिया कम्पनी का अधिकार हो चूका था। और राजपुतानों के कई नरेशों ने उनके साथ संधिया कर ली। ब्रिटिश सरकार राजाओं द्वारा आपस में छीने हुए प्रदेशो को अपने असली हकदारों को वापिस दिलवा दिए। यह सुचना मिलने पर महारावल ने तुरंत ईस्ट इण्डिया कम्पनी के साथ संधि करने का विचार कर लिया। तदनुसार जैसलमेर राज्य की और से दौलतसिंह भाटी तेजमालोत तथा थानवी मोतीराम पूरण अधिकार से दिल्ली भेजे गए। उन्होंने दिल्ली जाकर तत्कालीन भारत के गवर्नर जनरल द्वारा नियुक्त मिस्टर चार्ल्स थियोफ्लिस्मेंट काफ से बातचीत कर संधि कर ली। महारावल का इस संधि होने के दो वर्ष पश्चात् 1820 ई. में स्वर्गवास हो गया। उनके परलोक वास के अनन्तर मंत्री सलिम्सिंह ने अपने मनोनीत युवराज गजसिंह को उतराधिकारी बनाया।
महारावल मूलराज ने मंदिर वल्लभकुंड बनवाया, मूलसागर तालाब का निर्माण करवाया, मोहनगढ़ का किला बनवाकर गाँव बसाया। महल बनवाये, बाग लगवाये, तलहटी के महल चार बनवाये, दो महल गढ़ के ऊपर बनवाये। महारावल जी ने फौज ले जाकर सांवरीज लूटी, खेड़ के महेचा से दंड वसूला। सं . 1829 वि. में परगना शिव, कोटड़ा ग्राम जोधपुर वालों ने छीन लिया था, सो सं. 1850 वि. में पुनः उनसे ले लिये। महारावल मूलराज ने सं.1831 विक्रमी में शहर के चोगिरद शहर पनाह की दीवार व बुर्ज बनवाये।
महारावल गज सिंह (1820 - 1846) ; महारावल गजसिंह जी गद्दीबैठे तब उनकी उम्र ५ वर्ष की थी | कुटिल मंत्री सालमसिंह ने बालक गजसिंह को महारावल बनाकर अपने को पूर्ण स्वतन्त्र माना | इसने अपने पक्ष के हि मनुष्यों को इनके पास रखा और महारावल के युवा होने पर इनका विवाह उदयपुर के महाराणा भीमसिंह की कन्या रूपकंवर के साथ किया। गजसिंह ने 1832 में डाकुओं के विरुद्ध सैनिक अभियान किया था। महारावल गजसिंह ने आंग्ल-अफगान युद्ध में अंग्रेजो का साथ दिया। 1843-44 में अंग्रेजों ने इस सहायता के बदले में घड़सिया, शाहगढ़ तथा घोटारू क्षेत्र महारावल गजसिंह को उपहार स्वरूप दिए थे।
इसी बीच सूचना मिली की दीनगढ़ का अमीर फजल आली खान रेत के टीलों ओर मुश्किल जीवन से परेशान होकर दुर्ग छोड़ना चाहता है। सालमसिंह ने संदेश भिजवाया की अगर वह बेचना चाहता हे तो जैसलमेर उसे खरीद लेगा। फजल आली ने दीवान को दीनगढ़ बुलाया। बातचीत हुयी ओर सौदा चौहतर हजार रुपयों मे पट गया। जिसमे पचास हजार किले के ओर चौबीस हजार अन्य सामान के दिये गए | फजल अली खान किले का कब्जा सालमसिंह को सोंपकर सिंध चला गया। दीनगढ़ तनोट के पास था, उसका नाम बदलकर किशनगढ़ रखा गया। वहाँ एक हाकिम नियुक्त कर दिया। किशनगढ़ को रीयासत मे शामिल करने की रसमे अदा करने स्वयं सालमसिंह वहाँ गया। इस महोत्सव के उपलक्ष्य मे मंत्री सालमसिंह ने अपार धन खर्च किया। इस प्रकार सालमसिंह अपनी मनमानी करने लगा। उसने दो करोड़ की संपति एकत्रित कर ली ओर अपने रहने के लिए विशाल भवन भी बना लिया। शनै-शनै महरावल मंत्री की उद्दन्ड्ता से पूर्ण परिचित हो गए ओर उसके अत्याचारों से प्रज्ञा को दुखी देखकर उन्होने उसका वध करने के लिए भाटी आना को आज्ञा दी। भाटी आना ने मौका पाकर सालमसिंह पर अपनी तलवारों प्रहार किया जिससे उसके गहरा घाव हो गया। इतने मे ही सालमसिंह के अंगरक्षक उसको बचाकर घर ले गए। सलमसिंह 6 माह तक वेदना से पीड़ित रहे ओर अपने जीने की आशा छोड़ अपने संचित धन को सुरक्षित रखने के लिए अपने साले रूपसी तथा दूसरे भिखोड़ाई के चारण ब्राह्मणो आदि के साथ जैसलमेर राज्य से बाहर भेज दिया। परंतु वह धन राशि ले जाने वाले बीच मे ही हजम कर गए। स. 1881 विक्रमी चेत सुदी 14 को वह इस संसार से विदा हो गया | उसकी म्र्त्यु के अनंतर महरावल ने उसके पुत्र को किसी अपराध के कारण कारागार मे डाल दिया | इस समय मंत्री सलामसिंह के अनुयायियों ने राज्य मे काफी उपद्रव मचा रखा था किन्तु बुद्धिमान महरावल ने उन्हे पूरनतया परास्त कर अपने वश मे कर लिया।
सं.1885 में जैसलमेर व बीकानेर में अंतिम युद्ध हुआ। इस के पश्चात सं. 1891 वि.में ब्रिटिश गवर्मेंट की तरह से कर्नल ट्री.वी पिग ने यहाँ आकर दोनों राज्यों में संधि स्थापित करवा दी | 1894 वि. में लेड्लो साहब जोधपुर जैसलमेर के राज्य सम्बन्धी सीमाओं का बंटवारा करवाया। महारावल गजसिंह ने किले पर गजविलास ( सर्वोतम विलास ) बनवाया | अमरसागर में बाग़ लगवाया ,महल बनवाये। इन्होने बीकमपुर संवत १८८७ में खालसे किया। महारावल के नवीन मंत्री ईश्वरीलाल की सहमती से अच्छी उन्नति की | इनके ७ रानिया थी- १.ठा. सरुपसिंह सोढा की पुत्री मोतिकुंवर २.सोभागसिंह कोटडिया की पुत्री ३.जयसिंह सोढा की पुत्री हरिया कंवर ४.भीमसिंह बाड़मेरा की पुत्री सुरजकंवर बाड़मेर ५ उदयपुर के राना भीमसिंह सिसोदिया की पुत्री रूपकंवर ६ कानोना के ठा.भोमकरण करनोत की पुत्री सहिबकंवर ७.ठा.सादुलसिंह सोढा की पुत्री से विवाह हुए | लेकिन संतान नहीं थी।
महारावल रणजीत सिंह (1846-1864) : महारावल रणजीतसिंह महारावल गजसिंह के लघु भ्राता केसरसिंह के बड़े पुत्र थे। जैसलमेर के राज सिंहासन पर बैठे। उस समय उनकी आयु महज 3 वर्ष थी, अतः राज्य भार उनके पिता केशरसिंह ने आपने हाथ में लिया। ये पढ़े लिखे व् बुद्धिमान थे, उन्होंने अल्प समय में हि आपने कार्य की कुशलता से राज्य की अच्छी उनत्ती की। बीकानेर और भावलपुर सरहदी झगड़े भी इसी समय अमल लाये गए। सं, 1907 सरहद नबाब भावल पुर मीर मुराद अली खेरपुर से और सरकार अंग्रेजी गवर्मेंट सिंध से मेजर वीचर नकाल हदूद की सन्धी करायी। संवत १९०९ मारवाड़ पोकरण की सरहद कप्तान सिविल ने निकाली। राज बीकानेर से सरहद कप्तान हमलतीन साहेब ने निकाली। जिसमे धनेरी बहाल रही और राव बरसलपुर की कुछ जमीन गयी। गरांन्धी बांगड़ सर के खेत गए। गाँव रणजीत पूरा गाम गोडू और साचु ,फ़तेहवालों, मेघवालों और ढोलों ,रातेवालों बसाया। डेरो केसरसिंह का बनाया। महारावल रणजीतसिंह ने नाचना व् देवा कोट का निर्माण करवाया। महारावल ने ईसाल बंगले का निर्माण करवाया। इनका विवाह 1.महाजन के ठाकुर अमरसिंह की पुत्री से 2.खुडी के महादान सोढा की पुत्री से हुए। लेकिन इनके भी संतान नहीं थी।
महारावल बैरीसाल (1864-1891) : महारावल रणजीतसिंह की म्रत्यु के बाद उनके लघु भ्राता बेरीसाल राजसिंहासन पर बिराजे। पहले तो इन्होने झगड़े और कुप्रबंध के कारन सिंहासन पर बेठने से मना कर दिया था। परन्तु तत्कालीन ए.जी.जी.कर्नल इडन द्वारा समझाए जाने पर हि उन्होंने राज भार संभाला। इनेक राज्य संभालने के कुछ समय बाद हि भारी दुष्काल पड़ा। महारावल ने राजकोष से द्रव्य व्यय कर अपनी प्रजा की रक्षा की। इनेक समय में भी केसरसिंह हि राज्य सञ्चालन करते थे। परन्तु उनकी म्रत्यु के पश्चात् उनके छोटे भाई छत्रसिंह ने राज्य प्रबन्ध अपने हाथ में लिया। परन्तु प्रधान कार्य दीवान नथमल हि करते थे. संवत १९२७ में महारावल ने अपने राज्य का दोरा किया | इन्ही के राज्य काल में संवत 1936 में ब्रिटिस सरकार के साथ नमक के ठेके के बाबत अहद नामा हुआ, जिसमे यह तय हुआ की राज्य में काम लायक 15000 मन से ज्यादा नमक तेयार नहीं किया जायेगा। ये भी राज्य कार्य में रूचि नहीं रखते थे, अतः देश की दशा सोचनीय थी. संवत १९३१ वि.में जोधपुर महाराजा तखतसिंह के पोत्र कुमार फतेहसिंह जैसलमेर आये और ५ मास पर्यंत यहाँ रहे। महारावल ने जाते समय अपने पितृत्व छत्रसिंह की दूसरी कन्या के साथ उनका विवाह करवा दिया। संवत 1933 वि.में प्रथम दिल्ली दरबार हुआ। जिसमे भारत के सभी राज्य शामिल हुए, परन्तु आप अस्वस्थ होने के कारन उस दरबार में न जा सके। महारावल बेरीसाल उदार व् धर्मात्मा राजा थे। आपने 27 वर्ष राज्य किया। इनका विवाह सोढा अमरसिंह की पुत्री तथा दूसरा विवाह बिशनसिंह की पुत्री से हुआ, डूंगरपुर रावल उदयसिंह की कन्या से विवाह हुआ। ये भी निसंतान थे |
महारावल शालिवाहन सिंह III (1891-1914) : महारावल बैरिशाल जी के बाद उनके लघु भ्राता लाठी ठाकुर कुशालसिंह के पुत्र महारावल सालिभान जैसलमेर के राज्य सिंहासन पर विराजे। उस समय आपकी आयु 5 साल थी। राज कोष खाली था, राज्य पर कर्जा भी काफी था। राज्य कार्य वेस्टर्न राजपुताना स्टेट रेजिडेंट की देखरेख में राय बहादुर मेहता जगजीवन की अध्यक्षता में रीजेंसी कोंसील द्वारा होता था। परन्तु मेहता जगजीवन राम देश की रीति -रिवाज से वाकिफ नहीं था। अतः रीजेंसी में कार्य सुचारू रूप से नहीं होने के कारन प्रजा में असंतोष था। ऐक दिन तोलाराम पडिहार ने मेहता जगजीवन पर तलवार से प्रहार किया। जिससे उसका सर फट गया और छः सात महिना खटिया पर पड़ा रहा| अंत में अपने देश कच्छ चला गया। इसके बाद भाटिया जाती के राव लखमीदास बेरिस्टर एट ला को दीवान के पद पर नियुक्त किया।
इनके राज्य काल में उल्लेखनीय कोई घटना नहीं हुयी। महारावल युवा अवस्था में हि 11 अप्रेल 1914 ई को केवल तेरह वर्ष राज्य कर स्वर्गवासी हो गए। महारावल का प्रथम विवाह सिरोही नरेश महारावल केसरसिंह की कन्या से हुआ तथा दूसरा विवाह धांगदड़ा (काठयीवाड़) नरेश मानसिंह झाला की पुत्री के साथ हुआ। परन्तु इनके भी कोई संतान नहीं हुयी।
महारावल जवाहिर सिंह (1914-1949) : महारावल सालीभान के बाद उनके लघु भ्राता दानसिंह को जैसलमेर के राजसिंहासन पर बिठाया। किन्तु गोद नशिनी के लिए काफी विवाद चला। अंत में ब्रिटिस सरकार के निर्णय के अनुसार पूर्व महारावल गजसिंह के बड़े भाई देवीसिंह के पौत्र सरदारसिंह के छोटे पुत्र जवाहर सिंह को राज्य उतराधिकारी बनाया। सिंहासन पर विराजे उस समय आप की आयु 32 साल थी। आपने अजमेर में कालेज शिक्षा ग्रहण की। और कैडेट कोर देहरादून में फौजी शिक्षा भी प्राप्त की। आप सम्राट द्वारा सन 1918 की जनवरी को के .सी.एस.आई की उपाधि से विभुसीत किये गए।
इनके राज्य काल में प्रधान पद पर राय बहादुर मुरार जी, राव सम्पटराय साहिब, मुरारी लाल खोसला, राय साहब पंडित जमनालाल और सहालपुर के मुन्सी नन्द किसोर मेहता ने कार्य किया। डा. लखपत राय (एम ए पी एच डी वार एट ला) प्रधान मंत्री का कार्यं करते थे। आपने सिंहासन आरुढ़ होने के पश्चात् इस राज्य को जो कई पीढियां के कुप्रबंध के कारन अत्यंत स्थित हो रहा था। उससे मुक्ति दिलाकर आपने सुप्रबंध से शनैः -शनैः राज्य कोष में वृद्घि की तथा कई जनहित में कार्य किये। जिससे आज जैसलमेर सब तरह से प्रगति शील कहा जा सकता हे | मूलसागर में ऐक सुन्दर महल बनवाया। पुस्तकालय के लिए ऐक विशाल भवन बनवाया। जिसको बिनढम लाइब्रेरी कहते हे। वर्तमान में उसमे जिलाधीस कार्यालय हे, उसमे यह विराजमान होते थे। किले के तमाम महलों में आधुनिक चांदी का फर्नीचर बनवाया। सन १९३९से लगातार तीन साल अकाल पड़ने पर आपने मवेशी व प्रजा के निर्वाहर्थ भरसक पर्यतन किये शहर व किले पर बिजली की रोशनी का प्रबंध किया तथा किले के जैसल कुए पर इंजन लगा कर उससे शहर में नलों द्वारा पानी की टूटीयो लगवाई बागों व् तालाबों पर जाने के लिए कई सड़के तेयार करने का इंजन मंगवाया था। परन्तु जल के अभाव के कारन काम स्थगित रहा। जैसलमेर से बाड़मेर की तरह अपनी सरहद में सडक बनाने की योजना बनवाई। रेलवे लाईन जैसलमेर होते हुए कराची तक ले जाने की योजना महाराजा बीकानेर के साथ तय हो चुकी थी। राजा व् प्रजा में पिता पुत्र का सम्बन्ध था। प्रजा के छोटे बड़े झगड़े आप तहकीकात करके मिटा देते थे। इनकी आज्ञा थी की कोई भी दुःख रत को शयन के समय भी आकर आपको सजग करके अपना दुःख निवेदन कर सकता था। जैसलमेर में आपने ऐक आधुनिक ढंग का अस्पताल व हाई स्कूल का निर्माण करवाया। महारावल जवाहरसिंह के शासन काल को जैसलमेर का स्वर्ण युग (स्वर्णिम काल) कहा जाये तो अतिश्योक्ति नहीं हे। उनका स्वर्गवास 17 फरवरी 1949 को हुआ।
जैसलमेर राज्य सिंहासन पर सुशोभित होने से पूर्व इनका प्रथम विवाह लूणार के सोढा सोहन सिंह की पुत्री लाछकंवर से हुआ। जिनसे बड़े राजकुमार श्री गिरधर सिंह का जन्म 13 नवम्बर 1907 ई. को हुआ। दूसरा विवाह अमरकोट के सोढा नाहरसिंह की कन्या जड़ाव कंवर से हुआ। तीसरा बूंदी महाराव के भाई श्री गिरिराज सिंह की पुत्री श्रीमती कल्याण कंवर से हुआ। इनके द्वितीय महाराजा कुमार श्री हुकुमसिंह का जन्म 14 फरवरी 1927 ई. को हुआ।
महारावल गिरधर सिंह (1949) : महारावल गिरधरसिंह 17 फरवरी सन 1949 ई. को राजसिंहासन पर बिराजे। महारावल सरल प्रक्रति के बुद्धिमान व होनहार थे। इन्होने मेयो कालेज अजमेर से डिप्लोमा तक सिक्षा प्राप्त की। आप राज कार्य में प्रतिदिन दीवान साहब के साथ महकमे खास में बैठकर पूरा भाग लेते थे। राज्य कार्य में आपका खासा अनुभव हो गया था। 27 अगस्त 1950 को इनका स्वर्गवास हो गया। इनका प्रथम विवाह नरसिंहगढ़ के उमट पंवार अर्जनसिंह की पुत्री दमयंती तथा दूसरा विवाह अमरकोट के सोढा ठा. भेरूसिंह के पुत्री हवाकंवर से हुआ था। इनके दो पुत्र रुघनाथसिंह व चन्द्रवीरसिंह थे।
भारत की स्वतंत्रता पश्चात् 30 मार्च 1949 को जैसलमेर राज्य का भारत संघ में विलय कर दिया गया !!
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